शूद्रा भूमि
शूद्रा भूमि उसे कहें, काला होवे रंग ।
कड़वा-कड़वा स्वाद दे, देवे मदिरा-गंध ।।
देवे मदिरा-गंध, ठीक-ठाक रहते योग।
लेलो भैया लोन, लगालो एक उद्योग ।
कह ‘वाणी’ कविराज, बात फिर भी नहीं जमी।
बनाय वहाँ श्मशान, त्यागो तुम शूद्रा भूमि ।।
शब्दार्थ: मदिरा गंध = मदिरा जैसी बदबू आना, त्यागो = छोड़ दो, लोन = उद्योग हेतु ऋण लेना
भावार्थ:
श्याम वर्णी कृषि-योग्य भूमि को शूद्रा भूमि कहते हैं, जिसका स्वाद कड़वाएवं गंध मदिरा जैसी होती है। आवास हेतु यह भूमि त्याज्य मानी गई है। यहां उन्नति के अति साधारणयोग बनते हैं। यदि आपको फिर भी वहां रहना पड़ रहा हो तो थोड़ा-सा कर्ज लेकर छोटा-सा उद्योग लगा लें, जिससे गुजर-बसर हो सके।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि यदि उद्योग नहीं चले तो उस भमि को कषि-कार्य हेत प्रयोग में लेवें। कषि में भी आपसे पसीना नहीं बहाया जा सके तो फिर अंत में उसे श्मशान के लिए त्याग दें। यदि परिस्थितिवश नहीं त्याग सकते हों, तो वहां चारो ओर पीली-मिट्टी अवश्य डलवा दें, जिससे आर्थिक सम्पन्नता बढ़ेगी।
वास्तुशास्त्री : अमृत लाल चंगेरिया
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